गुरुवार, 17 मार्च 2016

टहलना तो बस एक बहाना होता है शायद!

शुरूआत करते हैं जह्ान्वी के इस बेहतरीन डायलाग से ... शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है, अगर यही जीना है तो मरना क्या है...मुझे यह डॉयलाग बहुत पसंद है...अनेकों बार सुन चुका हूं और सुनता रहता हूं ...जैसा आधुिनक जीवन का सार सिमट कर रख दिया हो इसमें...आप भी सुनिए....


यह तो था विद्या बालन का विचार ...मेरा आज का विचार यह है कि टहलना तो बस एक बहाना है, तन मन चुस्त दुरूस्त रखने के साथ साथ टहलने के दौरान हमें बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है, आज प्रातःकाल भ्रमण करते हुए यही ध्यान आ रहा था कि सुबह सवेरे जब हम लोग प्रकृति की गोद में आते हैं तो मानो यह भी अपने सारे खज़ाने खोल देती है ...

जितनी चाहो जिस तरह की चाहो प्रेरणा बटोर लीजिए, जोश भर लीजिए, जीवन जीने की कला और दूसरों को खुश रखने का हुनर सीख लीजिए।

मैं अकसर यह शेयर करता हूं अगर आप रोज़ रोज़ एक ही उद्यान में भी जाते हैं तो परवाह नहीं, बस जाते रहिए, हर दिन आप को कुछ नया दिखता है, कुछ नये नये अनुभव होते हैं ...बहुत कुछ रोमांचित घट रहा होता है हर तरफ़। आप को क्या ऐसा नहीं लगता!

एक बार जो आपसे और शेयर करनी है कि जहां तक हो सके तो हमें  इन जगहों पर बिना एफ एम या एयरफोन्स के ही जाना चाहिए...मैं अकसर उद्यान में टहलते हुए एफएम पर फिल्मी गीत सुनना पसंद करता हूं ...आवाज़ धीमी रखता हूं ..एयरफोन्स का इस्तेमाल नहीं करता...बहुत वर्ष किया...जब लगने लगा कि थोड़ा थोड़ा ऊंचा सुनने लगा हूं तो यह शौक छोड़ दिया...हां, तो मैं कह रहा था कि एफएम सुनते हुए टहलता हूं...लेकिन विचार यह आ रहा था कि यह एफएम वाला शौक पूरा करने के लिए तो पूरा दिन है ...जितना हो सके, उस नैसर्गिक वातावरण के साथ मिलने की, उस के साथ जुड़ने की कोशिश करनी चाहिए...सुबह तो कोशिश भी नहीं करनी पड़ती, यह स्वतः ही हो जाता है।

पार्क के गेट पर लोग योगाभ्यास का आनंद लेते हुए

मैं भी आज एफएम नहीं ले कर गया...तो मुझे भी बहुत अच्छा लगा... सब से पहले तो देखा कि पार्क के बाहर ही लोग योग क्रिया में रमे हुए थे...अंदर जाते जाते किसी ज्ञानी की एक बात कान में पड़ गई... कि आदमी भी जानवरों से ही सब कुछ सीखता है, परिंदों की उड़ान से सीख ली और हवाई जहाज बन गया...हाथी से सीख ली तो जेसीबी मशीन बन गई....
हमारे दौर की विद्या देवी 

आगे चलने पर आज ये पेड़ खूब दिखे...इन पर लगे ये हरे हरे फल हैं या फूल हैं ...पता नहीं लेिकन इस पेड़ की पत्तियों की यादें ढ़ेरों हैं बचपन की ...यही तो पेड़ है जिस की पत्ती हम लोग कापी-किताब में रख कर सोच लिया करते थे कि अब विद्या देवी हमारे पास है, सब कुछ याद भी हो जायेगा और परीक्षा परिणाम भी बढ़िया आयेगा...हर दौर की अपनी बातें, अपनी भ्रांतियां...innocent, foolish childhood myths!
बुजुर्गों के ठहाके ...दिल खोल लै यारां नाल नहीं ते डाक्टर खोलनगे औज़ारां नाल 
मुझे टहलते हुए अच्छा लग रहा था जब मैं बहुत से लोगों को अपने अपने कामों में मस्त हुआ देख रहा था, कुछ बुजुर्ग अपने ग्रुप में योग करते करते हास्य-योग्य कर रहे थे ....मुस्कान और हंसी भी बड़ी संक्रामक होती है।

इस पार्क में जगह जगह प्लेटफार्म भी बने हुए हैं जहां पर बैठ कर भी लोग योगाभ्यास करते रहते हैं।
यहां प्राणायाम् चल रहा है 
कहीं कोई दंपति प्राणायाम् करता दिखा.... कोई बुज़ुर्ग ध्यान मुद्रा में बैठा जल्दी से अपना परलोक सुधारने की फिराक में लगा दिखा। महान् देश के लोगों की सभी आस्थाओं, धारणाओं को सादर नमन।
मुझे आज सुबह जल्दी उठने का इनाम यह नज़ारा मिला ...थैंक गॉड
हां, कुछ यार दोस्त, खूब हंसते हंसते अपने मोबाइल से फिल्मी गीत सुनते हुए टहल रहे थे...अचानक जैसे ही यह गीत बजा ...थोड़ा रेशम लगता है, थोड़ा शीशा लगता है ... तो उन में से एक दोस्त ने चुटकी ली.....अच्छा, थोड़ा रेशम लगता है .........अच्छा....बस, फिर से उन के ठहाके।
ऐसे माहौल में शेल्फी भी ठीक ठाक आ जाती है ...एक और फायदा 
सुबह सुबह का वातावरण अलग ही होता है ...मैंने अचानक आसमान की तरफ़ देखा तो मुझे यह स्वर्णिम नज़ारा दिखा..चंद मिनटों के लिए ही रहा ..

सुबह सुबह ऐसे में टहलने से हमें किसी की खुशी में खुश होने की भी सीख मिलती हैं , वरना सत्संग में यह भी तो समझाते हैं कि आज का मानव दूसरे की खुशी से नाखुश है...उदास है ... और एक बात संक्रामक हंसी से याद आ गई ...

मैं सत्संग में सुनता हूं अकसर कि एक बार एक गुरु ने अपने दो शिष्यों को १००-१०० फूल दिए और उन्हें बांटने के लिए कहा ...शर्त यही रखी कि जो हंसता हुआ दिखे ... उसे ही एक फूल देना है....शाम के वक्त दोनों लौट आए, एक के पास सभी फूल वैसे के वैसे और दूसरे को झोला खाली ....जो चेला सारे फूल वापिस ले कर लौट आया, उन ने पूछने पर बताया कि बाबा, दुनिया है ही इतनी खराब, सारे के सारे उदासी में जिए जा रहे हैं, सुबह से शाम हो गई , मुझे तो कोई भी मुस्कुराता नहीं दिखा...

चलिए अब दूसरे की बारी आई....उसने कहा ... कि बाबा, लोग इतने अच्छे हैं, मैं जिसे भी मिला, मैं उसे देख कर जैसे ही मुस्कुराता, वह भी खुल कर मुस्कुरा देता..और मैं झोले में से गुलाब निकाल कर उसे थमा देता....गुरू जी, मेरे फूल तो एक घंटे में ही खत्म हो गये....मुझे तो यही लग रहा था कि मुझे और भी बहुत से फूल लेकर चलना चाहिए था।

सीख क्या मिलती है इस प्रसंग से, हम सब जानते ही हैं, हंसिए खुल कर हंसिए, और दुनिया आप के साथ हंसेगी...बांटिए, खुशियां बांटिए, मदर टेरेसा ने एक बार कहा था कि आप जिस से भी मुलाकात करो, उसे आप से मिलकर बेहतर महसूस करना चाहिए।
सूर्योदय का मनोरम नज़ारा...काश, बचपन में सूर्य नमस्कार ही सीख लिया होता..
मुझे लगता है हम सब का यही प्रयास होना चाहिए....लेकिन इस के लिए पहले हमें अपने अाप को तो खुश रखना सीखना होगा कि नहीं, just being at ease with ourselves....और सुबह का टहलने इन ढ़ेरों खुशियों को बटोरने का एक बहाना है ...पंक्षियों की चटचहाहट, ठंड़ी हवाएं, खुशगवार फिज़ाएं, हरियाली, खिलखिलाते फूल.....omg... बस करता हूं कहीं कवि ही न बन जाऊं...वरना दिक्कत यह हो जायेगी कि थोड़ा बहुत जितना भी काम का बचा हुआ हूं वह भी नहीं बच पाएगा।

हमारी कॉलोनी की सड़कों पर पसरा सन्नाटा 
मुझे अपनी हाउसिंग सोसायटी में टहलने का मन नहीं होता ...बिल्कुल सुनसान सन्नाटे वाली सड़कें...कंक्रीट का एक जंगल सा ..हरियाली तो है वैसे ..लेिकन फिर भी यह एक हमेशा सैकेंड ऑप्शन ही रहता है मेरे लिए...क्योंकि जैसा मैंने पहले ही कहा है कि टहलना तो बस एक बहाना है, उस दौरान हमें अपने रूह की खुराक भी इक्ट्ठा करनी होती है ...यह सब स्वतः होने लगता है...और फिर हम ने देखना है कि कैसे हम उस एनर्जी से अपने आस पास के वातावरण को अभिसिंचित कर सकते हैं, दिन भर ....यह भी प्रभु कृपा से अपने आप ही होने लगता है....

जाते जाते कल सत्संग में स्टेज पर विराजमान महात्मा ने एक बात समझाई ....जितना प्राप्त है, पर्याप्त है... हम ने नोट कर ली उसी समय, कागज़ पर तो हो गई, काश, हम लोगों के दिल में भी बस जाए यह बात...सहज जीवन का मूल-मंत्र....

एक बात और .....When you are good to others, you are best to yourself!  (यह पोस्टर मैंने विशेष तौर पर बनवाया था औरर होस्टल में अपने कमरे में टांगा हुआ था)....पढ़ते ही मजा आ जाता था...

बस, अब इजाजत लेने की बारी है ....हां, उन दोस्तों वाला गीत तो सुनते जाइए...थोड़ा रेशम लगता है .....

दरअसल मैंने भी यह गीत आज मुद्दतों बाद सुना...अभी देखा तो झट से याद आ गया कि यह तो ज्योति फिल्म का गीत है ...कालेज के पहले साल में देखी थी यह फिल्म --१९८१ की एक सुपर-डुपर हिट फिल्म...


6 टिप्‍पणियां:

  1. moral of the story... बुजुर्गों के ठहाके ...दिल खोल लै यारां नाल नहीं ते डाक्टर खोलनगे औज़ारां नाल ... :-) (Y)

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन धरती से अंतरिक्ष तक बेटियों की धमक - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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    1. धन्यवाद सेंगर भाई जी इस प्रोत्साहन के लिए। शुक्रिया। ऐसे ही स्नेह बनाये रखिये।

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  3. बहुत अच्छा कुलदीप जी। ऐसे ही हिंदी की सेवा में लगे रहिये। शुभाशीष।

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  4. सच सुबह की सैर से ताजगी तो मिलती हैं बहुत अनुभव भी मिलता है। .मुझे भी बहुत अच्छा लगता है सुबह की सैर करना, दिन भर की ऊर्जा जो मिलती हैं। . सुन्दर प्रस्तुति हेतु आभार!

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