मंगलवार, 13 सितंबर 2016

हमारे ज़माने के 40 साल पुराने रिजल्ट-कार्ड

शीर्षक सूझ नहीं रहा था कि क्या लिखूं...फिर लगा, पता नहीं कोई पढ़ता भी है कि नहीं, बिना वजह ज़्यादा मगज-मारी कैसी?...पढता है तो कोई तो ठीक है, नहीं पढ़ता तो और भी ठीक, मेरे मन की बात मेरे तक ही रहती है, और वैसे भी किसी भी फन की धार पैदा करने के लिए ज़िल्लत भी तो बहुत ज़रूरी है ही ...

अच्छा भला ईद की छुट्टी मना रहा था, विविध भारती का एसएमएस के बहाने फिल्मी गीत सुन रहा था, अखबार पढ़ रहा था...कि अब स्कूली छात्रों को छठी कक्षा से फेल करना वाला कोई नियम बनने वाला है, अभी तक तो सरकार की फ़िराकदिली यह है कि आठवीं तक किसी को फेल किया ही नहीं जाता...और एक खबर दिखी कि अमिताभ ने अपनी नातिन-पोतिन को एक चिट्ठी लिखी है जिस पर सोशल मीडिया पर बड़े तंज कसे जा रहे हैं...अच्छा, मुझे नहीं पता था, मैं तो लिंकन की अपने बेटे के मास्टर को लिखी चिट्ठी और नेहरू की अपनी बेटी को लिखी चिट्ठीयों के बारे में ही जानता हूं..

मुझे भी अचानक याद आ गया अपनी पांचवी-छठी कक्षा के दिन ...और चिट्ठीयों के जरिये अपने रिजल्ट का हमारे घरों में पहुंचना...

मैंने सोचा कि आज से ४०-४२ साल पहले कैसे हम लोगों के स्कूल हमारे घरों तक हमारे रिजल्ट पहुंचाते थे, इस को अपने ब्लॉग पर सहेज लिया जाना चाहिए.. वरना, समय बीतने के साथ कुछ कुछ बातें धुंधली होने लगती हैं...

जी हां, हमारी तिमाही, छःमाही और नौमाही परीक्षाएं हुआ करती थीं, पांचवी कक्षा से लेकर आगे दसवीं-बारहवीं कक्षा तक ... एक बात और यह कि सारा काम उन दिनों विश्वास पर ही चलता था...कोई मां-बाप भी किसी तरह की पैरवी नहीं किया करता था ...बच्चा अगर स्कूल गया है तो मतलब स्कूल ही गया होगा...सभी मां-बाप को यह भरोसा होता था..और ९९ प्रतिशत केसों में इस विश्वास पर कभी आंच भी नहीं आती दिखी ..

इसलिए मुझे अब दुःख होता है जब मैं देखता हूं कि सुबह सुबह ही स्कूल-कालेज में जाकर पढ़ने वाले बच्चे अपनी इस कैरियर बनाने की उम्र में इश्कबाजी में पड़ जाते हैं...जिन पार्कों में लोग सुबह आठ बजे टहलने के बाद लौट रहे होते हैं उन के गेटों के आसपास ये युगल मंडरा रहे होते हैं कि कब ये कमबख्त तोंदू-तोतले से बाहर निकलें और हम लोग अपनी इबादत शुरू करें...कईं बार तो छात्राओं के साथ छात्रों की बजाए उन से बीस साल ज्यादा उम्र के आदमी होते है ं..

वापिस ४० साल पुराने दिनों का रुख करते हैं...कोई पीटीएम नहीं, कोई पीटीए नहीं ...बहुत बार तो सारे स्कूली कैरियर में माता-पिता में से किसी का भी स्कूल में जाना ही नहीं होता था..मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ...पांचवी में जब उस बड़े डीएवी स्कूल में दाखिला होना था, तो पिता जी पड़ोस में रहने वाले साईंस टीचर को एक शाम कह आए कि सुबह प्रवीण को भी दाखिल करवा देना ..सुबह मास्टर साहब, मुझे साथ ही साईकिल पर बिठा कर ले गये....एंट्रेंस हुआ...बहुत बढ़िया और दाखिला हो गया..मैं खुश...सातवें आसमां पर!

अब अगर मां-बाप स्कूल ही नहीं आते थे तो सारा साल जो हमारी परीक्षाएं चलती थीं उन का परीक्षा-फल उन तक कैसे पहुंचता था...इस का इंतज़ाम स्कूल वालों ने पक्का कर रखा था.. तो ऐसा था कि जहां तक मुझे याद है १९७३ की बातें हैं...स्कूल ने कुछ इस तरह के पोस्टकार्ड छपवा रखे थे जैसा कंटैंट मैंने इन पोस्ट-कार्ड पर लिखा है....शायद उस कार्ड पर डाक-टिकट बच्चों को स्वयं अपनी लानी होती थी ...

अब परीक्षा आने के बाद दो चार पढ़ाकू छात्रों (हां, मैं भी उन में से एक तो था ही!) की ड्यूटी लग जाती थी ..इंचार्ज मास्टर वे सारे पोस्टकार्ड हमें दे देते ..हमें इन को लाइब्रेरी पीरियड में या आधी छुट्टी के समय वहां एकांत में बैठ कर भरना होता ...मास्टर जी वह रजिस्टर भी हमें दे देते जहां से हम ने यह अंक उतारने होते ... गलती का कोई स्कोप नहीं, एक पढ़ाकू चैकिंग के लिए और दूसरा काउंटर-चैकिंग के लिए ... इस के बावजूद भी अगर गल्ती हो गई तो हम लोगों की खैर नहीं!

अब इन पोस्टकार्डों पर मास्टर साहब हस्ताक्षर करने के बाद डाकपेटी में डलवा देते ...और तब कक्षा में घोषणा होती कि तुम लोगों का रिजल्ट पोस्टकार्ड डाक से चला गया है और अपने घर से उस पर हस्ताक्षर करवा के ले आना...


और एक दो दिन में वह कार्ड घर पहुंच जाता ...और फिर घर का हर बशर उसे कईं कईं बार देखता कि कहीं तो कुछ उल्टा-सीधा दिखे ...फाईनल कमैंट्स अकसर पिता जी के होते कि यार, साईंस में थोड़े कम लग रहे हैं...हां, पापा जी, पेपर ही इतना मुश्किल था कि सिर्फ १० बच्चे ही पास हुए हैं ...बाकी सब फेल हैं...आगे से और ध्यान करेंगे....बस, बात वहीं खत्म हो जाती, पापा जी के साइन होते ही उस कार्ड को बेयरर चैक से भी ज़्यााद संभाल के किसी कापी-किताब में रख कर बस्ते में बंद कर दिया जाता ...सुबह उसे मास्टर को देकर जान में जान आती ..

अब उस में भी कईं शरारतें हुआ करतीं...जिन छात्रों के नंबर बहुत ही कम होते और किसी तरह से डाकिये से वह कार्ड उन को मिल जाता तो वे उन अंकों को रबड़ से मिटा कर नये अंक लिख लेते .. बापू को इंप्रेस करते ..लेकिन मास्टर से कैसे बचते...मास्टर कार्ड देखते ही ताड़ जाता और फिर क्या हाल होता, दे दना दन दन ... पहले दायां गाल..फिर बायां गाल ..
मास्टर को तो सारे कार्ड वापिस चाहिए ही चाहिए होते थे...यह लीचड़खाना कईं कईं दिन तक चलता रहता पहले पीरियड में ...कोई छात्र कहता कि मास्टर जी, मेरे घर तो पहुंचा ही नहीं कार्ड तो उस के यहां फिर से भिजवा दिया जाता .. बकरे की मां कब तक खैर मनाती!

मुझे याद है कि कभी कभी इन परीक्षा-कार्डों में अक भरने वालों को कक्षा के दूसरे साथियों से रिक्वेस्ट भी आती कि देख लेना यार, उस सब्जैक्ट के अंकों को थोड़ा देख लेना..लेेकिन हमारे मास्टरों का इतना आतंक था कि हम इस तरह की हेराफेरी के बारे में सोच कर ही कांप जाते थे ...मुझे यह लिखते बड़ी हंसी आ रही है ..पुराने दृश्य सारे आंखों के सामने घूम रहे हैं....अभी इस पोस्ट को अपने उन दिनों के साथियों के वाट्सएप ग्रुप पर भी शेयर करूंगा ..फिर देखता हूं वे क्या कहते हैं !

DAV School Amritsar Magazine Arun (Aug.1973) --
One and only picture still with me of those days!
(Last row..middle one is this writer) 
यह जो मैंने ऊपर बातें लिखी हैं ये तो पांचवी-छठी कक्षा की थीं, फिर सातवीं आठवीं कक्षा में कुछ ऐसा हुआ ..जहां तक मुझे याद आ रहा है ..कि स्कूल ने इस तरह के पोस्टकार्ड रिजल्ट वाले प्रिंट करवाने बंद कर दिए... फिर तो हम लोगों का काम और भी बढ़ गया ...यह जो कंटैंट मैंने ऊपर लिखा है यह सारा हमें ५०-६० छात्रों के खाली पोस्टकार्डों पर स्वयं लिखना पड़ता था...खाली पोस्टकार्ड छात्रों को अपना पता लिख कर स्वयं देने होते थे ...

अभी मुझे ध्यान आ रहा कि शायद उस कार्ड में ऐसा भी कुछ लिखना होता था हमें कि छात्र ने कितने दिन स्कूल अटैंड किया और कितने दिन अनुपस्थित रहा .. और अगर किसी विषय में प्रथम, द्वितिय या तृतीय स्थान पाया हो तो वह भी उस पर लिखा जाता ..

हां, इस से याद आया कि लगभग हर साल स्कूल के वार्षिक उत्सव पर मुझे खूब इनाम मिला करते ... पुस्तकों के रूप में .. उन उत्सवों में अकसर मेरी मां अपनी किसी सखी-सहेली के साथ ज़रूर पहुंचती ..मुझे बहुत अच्छा लगता ... उस के बाद चाय-नाश्ते का इंतज़ाम होता और मेरी मां की सहेली सारे मोहल्ले में मेरी होशियारी के चर्चे करते न थका करतीं ....अच्छे थे यार वे भी पुराने सीधे-सादे दिन ...

उन दिनों हमें इस तरह की गाने बहुत अच्छे लगते थे....थे क्या, अभी भी उतने ही अच्छे लगते हैं....दुनिया जितने भी बदल जाए, बच्चे अभी भी उतने ही मन के सच्चे हैं....कोई शक?




6 टिप्‍पणियां:

  1. कमाल है डॉक्टर साहब कितने समय बाद आपके ब्लॉग पर जब भी पहुंचे पुराने दिनों की यादें ताजा हो तो फिर यही कहूंगा एक मुकम्मल ब्लॉग पोस्ट बहुत सुंदर संग्रहनीय

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    1. शुक्रिया झा साहिब इस हौसलाफजाई के लिए। अगली पोस्ट के लिए न्यूरोबिंन टीके जैसा काम करता है।

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  2. Nice. Sometimes i think where our society is going ? schools are overloaded. Gov. schools are in bad condition and privates are like education shop. is our next generation in safe hands ?

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