रविवार, 29 अक्तूबर 2017

डाक्टरों की बोलचाल का लहज़ा ..

मुझे बहुत बार ध्यान आता है कि डाक्टरों की बोलचाल में कुछ तो सुधार की ज़रूरत होती ही है ....विरले डाक्टर ही दिखते हैं जो एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ कम्यूनिकेशन में भी बहुत अच्छे होते हैं...

मरीज़ को दरअसल दोनों ही चीज़ों से सरोकार है...डाक्टर की काबलियत से भी और उस की बोलचाल से भी ...
क्यों हम कह देते हैं कि पुराने ज़माने में नीम-हकीम वैध या आजकल के झोलाछाप आसानी से मरीज़ के मन में घुस जाते हैं...लेकिन यह भी गलत है ..क्योंकि यह भी धोखाधड़ी ही है एक तरह से ..आप को अपने काम का ज्ञान तो है नहीं, बस चिकनी चुपड़ी बातों से आप अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं...

और दूसरी तरफ़ बड़े से बड़े स्पैशलिस्ट देखे हैं...अपने अपने फन के माहिर ..लेकिन कुछ तो कम्यूनिकेशन में फेल...यह भी क्या अंदाज़ हुआ कि मरीज़ से साथ इतना धीमे बोलो और आंख से आंख मिलाओ ही नहीं...ऐसे में मरीज़ क्या सोचता है या क्या विश्वास लेकर जाता है....यह भी सोचने वाली बात है ...

कहीं न कहीं बेलेंस की कमी तो है ही ...निःसंदेह ...कईं बार हम लोग ज़्यादा पढ़-लिख लेने के बाद ...शायद संवाद में उतने अच्छे रहते नहीं हैं....यह शायद मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ...लेकिन जो है, वह मैं लिख रहा हूं...दोस्तो, बात यह है कि डाक्टर और मरीज़ के संवाद में थोड़े तो पागलपन की ज़रूरत होती ही है ... मामूली सा, बिल्कुल हल्का सा झूठ भी (मरीज़ के हित में अगर हो तो) अगर मरीज़ के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान भी ले आए तो क्या हर्ज़ ही क्या है, हम कौन सा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंशज हैं।

डाक्टर का रूतबा समाज में बहुत बड़ा है ...मारपिटाई की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें ...आप यह देखिए कि न तो मरीज़ के लिए डाक्टर का धर्म और जाति किसी मतलब का होता है और न ही डाक्टर को अपने मरीज़ की जाति-धर्म से कोई सरोकार होता है ...

मैं कुछ दिन पहले सोच रहा था कि मरीज़ अपने डाक्टर के चेहरे को ऐसे ताकता है जैसे फांसी वाला कैदी जज के सामने खड़ा हो...और उस के चेहरे के हाव-भाव भी पढ़ लेने की कोशिश कर रहा हो ...

इस टॉपिक पर तो मेरी लिखने की इच्छा थी बहुत दिनों से लेकिन मैं ठीक से अपने विचार लिख नहीं पा रहा हूं..जो मैं कहना चाह रहा हूं उस का एक अंश ही इबारत की शक्ल ले पा रहा है ...

मुझे ध्यान आया एक दिन कि कोर्ट-कचहरी के मामलों में तो तारीख पे तारीख और अपील पर अपील वाली ऑप्शन भी होती है ..लेकिन यहां तक एक अनुभवी डाक्टर के जज से भी कितना बड़ा होता है ...उसने आप को जांच कर के एक बार जो कह दिया वह लगभग आप पक्का फैसला ही समझ लीजिए....कहीं भी अपील कीजिए...कुछ भी कीजिए... कुछ होता-वोता नहीं..बस मन की तसल्ली ....Just wishful thinking and failure to accept things!

 कल मुझे ध्यान यह भी आ रहा था कि धार्मिक स्थानों से भी कहीं ज़्यादा ये जो अस्पताल हैं...(ईश्वर सब को तंदरूस्त रखे) ... ये लोगों को अच्छा बनने के लिए प्रेरित करते हैं...वहां किसी की धर्म-जाति का कोई झंझट नहीं होता, कोई और टकराव की बात नहीं, बस अपने अपने मरीज़ की सलामती की दुआएँ और आजू-बाजू के मरीज़ के लिए भी दुआओं का सिलसिला ...
वैसे तो ये सब बातें लिखने वाली नहीं है...अनुभव करने वाली हैं...

डाक्टर लोग सच में बहुत महान हैं जो इतनी भयंकर निगेटिविटी के बावजूद भी काम करते हैं...इसलिए मुझे लगता है कि डाक्टर की अपनी सेहत और उस का मूड बिल्कुल टनाटन होना चाहिए......क्योंकि जो लोग उस के पास आ रहे हैं वे बिल्कुल मुरझाए हुए हैं....उन को थोड़ा सी हल्ला-शेरी देनी तो बनती है कि नहीं, यह तभी संभव है अगर डाक्टर स्वयं चुस्त-दुरूस्त और खुश है...

हम किसी की नेचर बदल तो नहीं सकते लेकिन फिर भी किसी के फायदे के लिए अगर थोड़ी बहुत एक्टिंग भी करनी पड़े तो बुराई क्या है .. अगर इतना करने से ही किसी बदहाल मरीज़ या उसके तीमारदारों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान भी आती हो तो ऐसा करने में बुराई क्या है....बस, कुछ डाक्टर लोग किसी गलतफ़हमी में अपने आप को सच में खुदा ही न समझने लगें...(मरीज़ ऐसा सोचते हैं...यह उन का बड़प्पन है) ....

असलियत सब जानते हैं...कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिन का कुछ भी न करो तो भी वे कुछ अरसे के बाद ठीक हो जाने वाली होती हैं...कुछ ऐसी होती हैं कि जब तक मरीज़ अपनी दिनचर्या या जीवनशैली नहीं बदलेगी ..वे ठीक नहीं हो सकती ...और कुछ ऐसी हैं जिन का कुछ भी कर लो....कुछ नहीं होने वाला ....अब यह ़डाक्टर के ऊपर है कि वह मरीज़ की बेहतरी के लिए उस का मन कैसे बहलाए रखे ...ताकि उस के स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया को तेज़ी मिले...

बार बार मरीज़ से उस की उम्र पूछ कर उसे कहीं यह तो याद दिलाना चाहते तो कि अब इतना तो तू जी ही चुका है ....कुछ को कहते सुना कि माई, तेरे घुटनों की ग्रीस हो गई है खत्म, तेरी नाड़ीयां हो गई हैं तंग......क्या आप को लगता है कि जो लोग डाक्टरों के पास जा रहे हैं वे ये सब नहीं जानते .......सब जानते हैं, लेेकिन वहां वह यह सब सुनते नहीं जाते ...वहां वे उम्मीद की घुट्टी लेने जाते हैं...विश्वास में भी बहुत ताकत है ...

छोड़ो यार, मैं भी यह क्या लिखने लग गया.....बस, अपने अनुभवों के आधार पर यही लिख रहा हूं कि डाक्टरों को अपना संवाद सुधारने के लिए हमेशा--हमेशा..और हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए....कोई भी परफेक्ट नहीं होता..हमेशा मरीज़ से बातचीत के ढंग को कल से आज बेहतर करने की गुंजाईश बनी रहेगी....एक एक शब्द सोच समझ कर बोलना होता है ...विशेषकर जो मरीज़ की बीमारी और इलाज के बारे में होता है ...क्योंकि मरीज़ उन्हीं शब्दों को अपने साथ लेकर जाता है ...और महीनों डाक्टर के एक एक लफ्ज़ के मायने समझने की कोशिश करता रहता है ...

और अकसर मरीज़ डाक्टर के दो चार सहानुभूति वाले या कर्कश या सख्त शब्द अपने साथ ले जाता है और दवा-दारू के साथ साथ उन्हें भी दिन में कईं बार खाता-चबाता रहता है ...आप देखिए, कितनी पावर है डाक्टरों के अल्फ़ाज़ में! ये सब तजुर्बे की बातें हैं ...डाक्टर के तौर पर भी, मरीज़ और तीमारदार के रोल में भी ..!

I wish doctors become more sensitive about their communication skills! वैसे ज़िंदगी भी एक पहेली है ...इसे कौन समझा है!!





2 टिप्‍पणियां:

  1. Very important topic you have written here .In fact once i had bad experience with a Senior Experienced doctor . Who passed personal remarks on me during treatment . She was so rude and arrogant . I was not fully conscious and was weak enough to reply back . I wonder from where she did her MBBS . I hate such doctors . Anyway , thanks for the post .

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  2. Amazing blog and very interesting stuff you got here! I definitely learned a lot from reading through some of your earlier posts as well and decided to drop a comment on this one!

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