रविवार, 29 अक्तूबर 2017

झोलाछाप का इलाज कौन करे!

 ये जितने भी झोलाछाप तीरमार खां हैं न ये लोगों की सेहत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं.. लोग सस्ते के चक्कर में या किसी और बात के कारण इन के चक्कर में आ ही जाते हैं... आज से लगभग ३० साल पहले की बात है ...मैंने कईं बार दिल्ली के नार्थ ब्लॉक या साउथ ब्लॉक बिल्डिंग के बाहर ऐसे झोलाछाप दांत के मजदूरों को प्रैक्टिस करते देखा...उन दिनों मुझे यही लगता था कि अगर ये लोग दिल्ली के ऐसे पते पर अपना धंधा जमा कर बैठे हुए हैं तो गांव-खेड़ों की तो बात ही कोई क्या करे...

तरह तरह की तस्वीरें हमें सोशल मीडिया पर दिखती रहती हैं... अपने ही शहरों में हम लोग अकसर देखते हैं कि ऐसे प्रैक्टिस करने वाले अपनी दुकानें सजा कर बैठे हुए होते हैं...
 
ऐसी तस्वीरें मुझे बहुत दुःखी करती हैं

आज भी मुझे ये तस्वीरें मिली हैं ....आप देखिए किस तरह से बच्चे के दांतों का उपचार किया जा रहा है ...मुझे यह देख कर बहुत दुःख हुआ...

इलाज शब्द तो इस्तेमाल ही नहीं करना चाहिए इस तरह के काम-धंधे के लिए ...क्योंकि मरीज़ या उस के मां-बाप को लगता होगा कि यह इलाज है ..लेकिन वे इस बात से नावाकिफ़ हैं कि इस तरह से इलाज के नाम पर कोई भी झोलाछाप कितनी भयंकर बीमारियां फैला सकता है ...जैसे हैपेटाइटिस बी (खतरनाक पीलिया), हैपेटाइटिस सी (हैपेटाइटिस बी जैसा ही खतरनाक पीलिया), एचआईव्ही संक्रमण... और भी पता नहीं क्या क्या.....औज़ार इन के खराब ..दूषित होते हैं...शरीर विज्ञान का कोई ज्ञान नहीं... कोई वास्ता नहीं और मरीज़ को क्या तकलीफ़ है पहले से ...बस, अपने पचास सौ रूपये पक्के करने के लिए ये झोलाछाप कुछ भी कर गुज़रने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं... 

अफसोसजनक...कि आज भी लोग सड़क पर ऐसे इलाज करवा रहे हैं

कितनी बार तो हम लोग लिखते रहते हैं कि इस तरह के झोलाछाप डाक्टरों से बच कर रहिए...फिर भी लोग इन का शिकार हो ही जाते हैं... क्या करें... 

मैं कईं बार सोचता हूं कि इस तरह के झोलाछाप अगर कहीं भी पनप रहे हैं तो किसी न किसी की लापरवाही से ही तो यह हो रहा है .. किसी की तो जिम्मेवारी होगी कि इस तरह से पब्लिक को नुकसान पहुंचाने वाले लोग अपनी दुकानें न चला पाएं...कभी कभी किसी शहर से कईं सालों के बाद कुछ कार्यवाही की खबरें आती हैं...बस, फिर आगे कुछ नहीं... मुझे कईं बार यह भी लगता है कि अधिकारियों को भी शायद यही लगता होगा कि क्या करें इनका, हमारे बच्चे, हमारे परिवार या हम तो इन के पास नहीं जाते ...अगर कमजोर तबका जाता भी है इन के पास तो क्या करें, अनपढ़ जनता है ...लेकिन ऐसा नहीं है, अनपढ़ पब्लिक के हुकूक की हिफाज़त करना भी हुकुमत की एक अहम् जिम्मेवारी होती है ... 

कुछ दिन पहले मुझे यह वाट्सएप पर वीडियो दिखी .. 



पेड़ों की रेडियोफ्रिक्वेंसी टैगिंग की नौबत आन पहुंची है ..

पीछे कुछ तरह तरह के पशुओं की रेडियोफ्रिक्वैंसी टैगिंग की बातें हो रही थीं...अभी पंजाब का एक नेता भी कुछ ऐसा ही कह रहा था ....मैंने कुछ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि इस तरह की कुछ खबरों में तो ज़्यादा राजनीति होती है ...

लेकिन आज जैसे ही अखबार उठाया तो पहले ही पन्ने पर एक खबर दिख गई ....शिमला में हाई-कोर्टों के आदेश पर अब वहां के पेड़ों की RFIT  Radio-frequency Identification Tagging .. होगी ... सरकारी जगहों पर लगे पेड़ों की टैगिंग का खर्च सरकार को उठाने को कहा गया है और प्राईव्हेट जगहों पर इस खर्च का वहन इस जगह के मालिक द्वारा किया जायेगा..

जब मैंने खबर पूरी पढ़ी तो मुझे इतनी हैरानी हुई कि किस तरह से लालची-शातिर लोग पेड़ों की जड़ों में पहले तो तेजाब डाल कर उन्हें सुखा देते हैं..फिर पेड़ जब सूख जाता है ..तो अपने आप गिर जाता है या फिर कानून को तोड़-मरोड़ कर उसे वहां से निकलवा दिया जाता है ....और यह सब सिर्फ़ लकड़ी हासिल करने के लिए ही नहीं हो रहा, इस में भू-माफिया का पूरा हाथ है ....ताकि पेड़ों को हटाकर वहां पर कंकरीट के जंगलों का निर्माण किया जा सके...

मुझे इस देश के तीसरे और चौथे खंभे ...न्यायपालिका एवं पत्रकारिता पर भी बहुत भरोसा है... पत्रकारिता देश में अपना सामाजिक दायित्व निभा रही है और न्यायपालिका के कहने ही क्या....मैं कईं बार सोचता हूं कि अगर देश में न्यायपालिका ढीली होती तो क्या हाल होता...

पेड़ों की हिफ़ाज़त के मामले में भी अब हाईकोर्ट को इस तरह के सख्त आदेश देने पड़ रहे हैं...


पेड़ों की बात करें तो अच्छे हम सब को लगते हैं...लेकिन हम इन का खडा़ करने और इन की देखभाल के लिए कुछ ज़्यादा करना नहीं चाहते हैं...जहां मैं इस समय बैठा हूं, मेरे कमरे से बाहर का यह नज़ारा दिख रहा है ....ठंडी छाया ... और घर के सभी कमरों से ऐसा ही नज़ारा नज़र आ रहा है ..

मुझे पेड़ों से बहुत लगाव है ....शायद हज़ारों तस्वीरें पेड़ों की मैंने अपने मोबाइलों से ले डाली हैं ... मुझे हर नये पेड़ से मिलना किसी नये शख्स के मुखातिब होने जैसा लगता है ....मुझे यह रोमांचित करता है ...



पेड़ों की जान अगर तरह तरह के धार्मिक विश्वासों की वजह से भी बच जाती है तो भी मुझे अच्छा लगता है ... लेकिन लोग पता नहीं पेड़ की जड़ों के आसपास इस तरह से सीमेंट क्यों पैक कर देते हैं...उन्हें भी फैलने का मौका दीजिए... बहुत बार इस तरह के पेड़ों दिख जाते हैं जिन का दम घुटता दिखता है ...

अब तो रेडियो-टैगिंग की बात हो रही है ...बचपन में लगभग ४० साल पहले की बात है ... हमारी कॉलोनी में पेड़ों पर नंबर लिख कर गये थे ..उस का क्या हुआ, क्या नहीं, कुछ ध्य़ान नहीं....लेकिन पेड़ों को बचाने के लिए तो जितने भी प्रयास किये जाएं कम हैं... फैलने दीजिए, उन्हें भी जैसा उन का मन चाहे, वे आप की जान नहीं लेंगे ..निश्चिंत रहिए..



मुझे ऐसे लोगों से बेहद नफ़रत है...घिन्न आती है मुझे ऐसे लोगों से जो अपने स्वार्थ के लिए पेड़ों पर कुल्हाड़ी चला देते हैं..

डाक्टरों की बोलचाल का लहज़ा ..

मुझे बहुत बार ध्यान आता है कि डाक्टरों की बोलचाल में कुछ तो सुधार की ज़रूरत होती ही है ....विरले डाक्टर ही दिखते हैं जो एक कुशल चिकित्सक के साथ साथ कम्यूनिकेशन में भी बहुत अच्छे होते हैं...

मरीज़ को दरअसल दोनों ही चीज़ों से सरोकार है...डाक्टर की काबलियत से भी और उस की बोलचाल से भी ...
क्यों हम कह देते हैं कि पुराने ज़माने में नीम-हकीम वैध या आजकल के झोलाछाप आसानी से मरीज़ के मन में घुस जाते हैं...लेकिन यह भी गलत है ..क्योंकि यह भी धोखाधड़ी ही है एक तरह से ..आप को अपने काम का ज्ञान तो है नहीं, बस चिकनी चुपड़ी बातों से आप अपना उल्लू सीधा करना जानते हैं...

और दूसरी तरफ़ बड़े से बड़े स्पैशलिस्ट देखे हैं...अपने अपने फन के माहिर ..लेकिन कुछ तो कम्यूनिकेशन में फेल...यह भी क्या अंदाज़ हुआ कि मरीज़ से साथ इतना धीमे बोलो और आंख से आंख मिलाओ ही नहीं...ऐसे में मरीज़ क्या सोचता है या क्या विश्वास लेकर जाता है....यह भी सोचने वाली बात है ...

कहीं न कहीं बेलेंस की कमी तो है ही ...निःसंदेह ...कईं बार हम लोग ज़्यादा पढ़-लिख लेने के बाद ...शायद संवाद में उतने अच्छे रहते नहीं हैं....यह शायद मेरा व्यक्तिगत अनुभव है ...लेकिन जो है, वह मैं लिख रहा हूं...दोस्तो, बात यह है कि डाक्टर और मरीज़ के संवाद में थोड़े तो पागलपन की ज़रूरत होती ही है ... मामूली सा, बिल्कुल हल्का सा झूठ भी (मरीज़ के हित में अगर हो तो) अगर मरीज़ के चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान भी ले आए तो क्या हर्ज़ ही क्या है, हम कौन सा सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के वंशज हैं।

डाक्टर का रूतबा समाज में बहुत बड़ा है ...मारपिटाई की छुटपुट घटनाओं को छोड़ दें ...आप यह देखिए कि न तो मरीज़ के लिए डाक्टर का धर्म और जाति किसी मतलब का होता है और न ही डाक्टर को अपने मरीज़ की जाति-धर्म से कोई सरोकार होता है ...

मैं कुछ दिन पहले सोच रहा था कि मरीज़ अपने डाक्टर के चेहरे को ऐसे ताकता है जैसे फांसी वाला कैदी जज के सामने खड़ा हो...और उस के चेहरे के हाव-भाव भी पढ़ लेने की कोशिश कर रहा हो ...

इस टॉपिक पर तो मेरी लिखने की इच्छा थी बहुत दिनों से लेकिन मैं ठीक से अपने विचार लिख नहीं पा रहा हूं..जो मैं कहना चाह रहा हूं उस का एक अंश ही इबारत की शक्ल ले पा रहा है ...

मुझे ध्यान आया एक दिन कि कोर्ट-कचहरी के मामलों में तो तारीख पे तारीख और अपील पर अपील वाली ऑप्शन भी होती है ..लेकिन यहां तक एक अनुभवी डाक्टर के जज से भी कितना बड़ा होता है ...उसने आप को जांच कर के एक बार जो कह दिया वह लगभग आप पक्का फैसला ही समझ लीजिए....कहीं भी अपील कीजिए...कुछ भी कीजिए... कुछ होता-वोता नहीं..बस मन की तसल्ली ....Just wishful thinking and failure to accept things!

 कल मुझे ध्यान यह भी आ रहा था कि धार्मिक स्थानों से भी कहीं ज़्यादा ये जो अस्पताल हैं...(ईश्वर सब को तंदरूस्त रखे) ... ये लोगों को अच्छा बनने के लिए प्रेरित करते हैं...वहां किसी की धर्म-जाति का कोई झंझट नहीं होता, कोई और टकराव की बात नहीं, बस अपने अपने मरीज़ की सलामती की दुआएँ और आजू-बाजू के मरीज़ के लिए भी दुआओं का सिलसिला ...
वैसे तो ये सब बातें लिखने वाली नहीं है...अनुभव करने वाली हैं...

डाक्टर लोग सच में बहुत महान हैं जो इतनी भयंकर निगेटिविटी के बावजूद भी काम करते हैं...इसलिए मुझे लगता है कि डाक्टर की अपनी सेहत और उस का मूड बिल्कुल टनाटन होना चाहिए......क्योंकि जो लोग उस के पास आ रहे हैं वे बिल्कुल मुरझाए हुए हैं....उन को थोड़ा सी हल्ला-शेरी देनी तो बनती है कि नहीं, यह तभी संभव है अगर डाक्टर स्वयं चुस्त-दुरूस्त और खुश है...

हम किसी की नेचर बदल तो नहीं सकते लेकिन फिर भी किसी के फायदे के लिए अगर थोड़ी बहुत एक्टिंग भी करनी पड़े तो बुराई क्या है .. अगर इतना करने से ही किसी बदहाल मरीज़ या उसके तीमारदारों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान भी आती हो तो ऐसा करने में बुराई क्या है....बस, कुछ डाक्टर लोग किसी गलतफ़हमी में अपने आप को सच में खुदा ही न समझने लगें...(मरीज़ ऐसा सोचते हैं...यह उन का बड़प्पन है) ....

असलियत सब जानते हैं...कुछ बीमारियां ऐसी हैं जिन का कुछ भी न करो तो भी वे कुछ अरसे के बाद ठीक हो जाने वाली होती हैं...कुछ ऐसी होती हैं कि जब तक मरीज़ अपनी दिनचर्या या जीवनशैली नहीं बदलेगी ..वे ठीक नहीं हो सकती ...और कुछ ऐसी हैं जिन का कुछ भी कर लो....कुछ नहीं होने वाला ....अब यह ़डाक्टर के ऊपर है कि वह मरीज़ की बेहतरी के लिए उस का मन कैसे बहलाए रखे ...ताकि उस के स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया को तेज़ी मिले...

बार बार मरीज़ से उस की उम्र पूछ कर उसे कहीं यह तो याद दिलाना चाहते तो कि अब इतना तो तू जी ही चुका है ....कुछ को कहते सुना कि माई, तेरे घुटनों की ग्रीस हो गई है खत्म, तेरी नाड़ीयां हो गई हैं तंग......क्या आप को लगता है कि जो लोग डाक्टरों के पास जा रहे हैं वे ये सब नहीं जानते .......सब जानते हैं, लेेकिन वहां वह यह सब सुनते नहीं जाते ...वहां वे उम्मीद की घुट्टी लेने जाते हैं...विश्वास में भी बहुत ताकत है ...

छोड़ो यार, मैं भी यह क्या लिखने लग गया.....बस, अपने अनुभवों के आधार पर यही लिख रहा हूं कि डाक्टरों को अपना संवाद सुधारने के लिए हमेशा--हमेशा..और हमेशा प्रयत्नशील रहना चाहिए....कोई भी परफेक्ट नहीं होता..हमेशा मरीज़ से बातचीत के ढंग को कल से आज बेहतर करने की गुंजाईश बनी रहेगी....एक एक शब्द सोच समझ कर बोलना होता है ...विशेषकर जो मरीज़ की बीमारी और इलाज के बारे में होता है ...क्योंकि मरीज़ उन्हीं शब्दों को अपने साथ लेकर जाता है ...और महीनों डाक्टर के एक एक लफ्ज़ के मायने समझने की कोशिश करता रहता है ...

और अकसर मरीज़ डाक्टर के दो चार सहानुभूति वाले या कर्कश या सख्त शब्द अपने साथ ले जाता है और दवा-दारू के साथ साथ उन्हें भी दिन में कईं बार खाता-चबाता रहता है ...आप देखिए, कितनी पावर है डाक्टरों के अल्फ़ाज़ में! ये सब तजुर्बे की बातें हैं ...डाक्टर के तौर पर भी, मरीज़ और तीमारदार के रोल में भी ..!

I wish doctors become more sensitive about their communication skills! वैसे ज़िंदगी भी एक पहेली है ...इसे कौन समझा है!!