शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2018

खाते-पीते लोग एक साथ और कहां मिलेंगे!

कल और आज यहां लखनऊ के एक पार्क में टहलते हुए कुछ तस्वीरें लीं जिन्हें आप से शेयर करने की इच्छा हो रही है ...

कल लखनऊ के इस पार्क के बाहर लोगों का जमावड़ा देख कर दूर से तो ऐसे लगा जैसे लौकी, आंवले का जूस बिक रहा होगा..लेकिन नहीं, यहां पर सेहत की जांच हो रही थी, इस के बारे में आगे बात करते हैं..
पार्क के अंदर घुसते ही रोज़ाना योगाभ्यास करने वालों का यह ग्रुप अपनी साधना में लगा होता है ...अच्छा लगता है इन सब को देख कर 
सब की पूजा एक सी ...अलग अलग हर रीत
यहां भी प्राणायाम् चल रहा था...
पार्क में लखनऊ में इतने बढ़िया हैं कि कई बार तो लगता है जैसे जंगल में टहल रहे हैं....
पार्क के अंदर ही एक अन्य मनोरम स्थल 
अरे वाह! मोर जी आप भी सुबह का आनंद ले रहे हैं...

कहीं प्राणायाम्, योग ...कहीं सूर्य-नमस्कार ..कुछ भी करिए, बस सुबह घर से निकल पड़िए...बाकी, सब ठीक है ...
इस पार्क के साथ लगते पार्क में जाने की मनाही है ..किसी पार्टी के चुनाव चिंह हैं, कहते हैं इस लिए मनाही है....सोच रहा हूं कि इतना खर्च कर के इतना भव्य पार्क बना है, इस का आखिर होगा क्या....दूर से ही देखा है...अँदर जाने की मनाही है ...शायद सुप्रीम कोर्ट ने भी इस तरह के चुनाव चिंहों के बार में कुछ कहा तो था, कुछ साल पहले, अच्छे से याद नहीं...पार्टी का नाम जानबूझ कर नहीं ले रहा, क्योंकि मैं पालिटिक्स और धर्म के बारे में कुछ नहीं कहता 
मुझे तो सुबह सुबह ऐसे पेड़ दिख जाएं तो समझिए मेरा दिन  बन गया ...मेरे रूह की ख़ुराक 
पार्को में इस तरह के पत्तों और घास-फूस को जो आग लगा  दी जाती है, यह बड़ी गलत बात है ...कल भी एक जगह पर एक ढेर में आग लगी हुई थी और उसी के इर्द-गिर्द लोग टहल रहे थे ..
मुझे यह कौना भी बहुत अच्छा लगता है ...इस के बाहर बट निकुंज लिखा हुआ है ..यहां सारे बट-वृक्ष ही हैं...
साथ के प्रतिबंधित पार्क की एक फोटो दीवार के एक झरोखे से खींच ली ...
इस पार्क में सब के लिए कुछ न कुछ है ...बच्चे भी मस्ती करते अकसर दिख जाते हैं...
मुझे नही पता यह क्या है, ये छोटे स्तंभ या पिंड क्या हैं, ये पीपल के पेड़ के नीचे हैं...अब किस से पूछूं कि इन को तैयार करने के पीछे की क्या स्टोरी है...चलिए, मुझे क्या लेना है, ज़रूरी तो नहीं कि हर बात का जवाब मिल ही जाए...वैसे ही सोशल-मीडिया पर जो जानकारी का ढेर मिलता रहता है, पहले ही से उस से मैं इतना परेशान हूं! 
हम लोग सेहत के श्रेत्र में खूब तरक्की कर रहे हैं, फिर भी कुछ ऐसे अस्पतालों के बारे में जानता हूं जहां पर महीनों तक  उच्च रक्तचाप के मरीज़ों का बी पी नापा ही नहीं जाता....क्योंकि वहां इतनी मशीनें ही नहीं हैं, या खराब पड़ी हैं या उन में सेल नहीं है ...और वज़न चेक करने वाली मशीनों को छिपा कर रखा जाता है....चपरासी मरीज़ों को टरका देते हैं कि मशीन है ही नहीं, उन्हें लगता है भारी-भरकम लोग इन पर चढ़ेंगे तो ये मशीनें खराब हो जाएंगी....ऐसे माहौल में अगर इस तरह से कुछ लोग ऐसा प्रयास कर रह हैं कि लोगों को सेहत के बारे में जागरूक किया जाए तो बहुत अच्छी बात है ...
इस विज्ञापन वाले को फोन किया कि बताइए क्या डिटेल्स हैं, उसने बताया कि हम आप के आर ओ में कुछ यंत्र फिट कर देंगे जिस से पानी एल्केलाइन हो जायेगा ...और उस में मिनरल भी एड कर देंगे....कहा तो है उसे डिटेल्स भिजवा दे..देखते हैं समझते हैं, माजरा क्या है!
अब इस तरह के शूगर-बीपी टैस्टिंग करने वाले लोग हर बड़े पार्क के बाहर दिख जाते हैं...मुझे याद आ रही है  २००९  के दिनों की ...मैं मद्रास गया था...वहां पर मैरीना बीच पर एक व्यक्ति २० रूपये लेकर लोगों की शूगर जांच और बीपी चैक कर रहा था ...यह युवक भी ३० रूपये ले रहा था और बड़े साफ़-सुथरे तरीके से लोगों की शूगर जांच कर रहा था ...साथ में बीपी भी और वजन भी ...अगर किसी ने शूगर जांच नहीं करवानी तो भी फ्री में बीपी और वजन नपवा सकता है ....दरअसल यह युवक किसी लैब से हो, इस का अपना कलेक्शन सेंटर है....जिस की भी शूगर ज़्यादा निकल रही थी, उस का फोन नंबर और शूगर की रिपोर्ट साथ में रजिस्टर में लिख रहा था ..अच्छी बात है, मार्केटिंग का एक बढ़िया तरीका तो है ही ....अब इतने सारे खाते-पीते, सेहत के बारे में थोड़ा डरे-सहमे लोग, शारीरिक श्रम के प्रति सचेत लोग....इतनी भारी संख्या में सुबह सुबह और कहां मिलेंगे....टारगेट आबादी को एड्रैस करने का कितना बेहतरीन नमूना है यह। किसी से कोई जबरदस्ती नहीं, जिसे इस की सेवाओं का लाभ उठाना है, उठाए ....नहीं तो ...कोई बात नहीं !

पार्क भी आज कल मल्टी-एक्टीविटी सेंटर हो चले हैं...यहां पर कुछ पार्क ऐसे हैं शायद हर बड़े शहरों की तरह ....जिन की एक्टीविटी  सुबह आठ बजे के बाद रोज़ाना बदल जाती है ...क्योंकि उस समय यहां पर स्कूल-कालेज के प्रेम-पुजारियों का आवागमन शुरू हो जाता है ....और यह सिलसिला अंधेरा होने तक चलता रहता है....और दूसरी गतिविधियों की बात करें तो बाहर आते ही कभी कभी कोई रिएल-एस्टेट एजैंट अपने हैंड-बिल्स के साथ मिल जाता है ....मेरा एक ही जवाब ...यार, मैं आप का समय बरबाद नहीं करना चाहता, मैं लखनऊ में कुछ भी लेने के लिए इंटरेस्टेड नहीं हूं.....(इतनी बड़ी स्टेटमेंट तो मैं दे देता हूं...बाकी सब अन्न-जल की माया है!)

बातें बहुत हो गई हैं, दो तीन दिन से पता नहीं यह गीत बार बार मुझे याद आ रहा है.......आप भी सुनिए.....


मंगलवार, 25 सितंबर 2018

मंटो - एक बेहतरीन फ़िल्म

कुछ अरसा पहले से सुन रहे थे कि मंटो फिल्म आने वाली है ...जिसे जानी मानी हस्ती नंदिता दास बना रही हैं और नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी इस में मंटो की भूमिका में नज़र आएंगे। दो दिन पहले इस फिल्म को देखने का मौका मिल गया ...बहुत अच्छी लगी यह फिल्म।


जनाब मंटो साहब के बारे में एक दिलचस्प बात यह कि मैंने शायद इन का नाम २० साल पहले सुना था... लेकिन बहुत समय तक मुझे यही लगता रहा कि यह कोई ब्रिटिश नाम है ...इंगलिश-विंगलिश में लिखते होंगे..

मुझे अच्छे से याद है कि १५-१६ साल पहले की बात है ...मैं उस समय पंजाब में पोस्टेड था ..वहां पर मंटो साहब की कहानियों की एक किताब मेरे हाथ लग गई ... सच बताऊं तो इस किताब से ही पता चला कि वे ब्रिटिश नहीं है, यहीं के ही हैं...


हां, एक बात और ...बहुत साल हो गये अखबारों में यह रिपार्ट देखी थी कि पाकिस्तान से मंटो साहब की साहिबज़ादियां अपने अब्बा का जन्मदिन मनाने के लिए समराला आती हैं...एक बार तो इन बेटियों की इंटरव्यू भी पढ़ी थी अखबार में ...तब से इस महान् शख्स के काम में दिलचस्पी और भी बढ़ गई ...


मंटो फिल्म आने से तो नई पीढ़ी को भी मंटो साहब के बारे में बहुत कुछ जानने का मौका मिलेगा ...मेरी उम्र ५५ की है, मेरा बेटा २५ साल का है ...बंबई में रहता है ...कुछ महीने पहले मैं उस की बुक-शेल्फ़ देख रहा था ..मंटो साहब की कहानियों की किताब देिख गईं...जैसे ही उसे खोला तो पता चला कि उस के किसी फ्रेंड ने उसे वह गिफ्‍ट की थी और गिफ्ट करने वाले ने लिखा था ...विशाल, जब शोर बहुत ज़्यादा बढ़ जाए, तो इस किताब को खोल लेना....


उस दिन मैं फ़िल्म देख कर आया तो एफएम रेडियो पर भी इस के बारे में देर रात के वक्त प्रोग्राम चल रहा था ...बहुत अच्छा रिव्यू था ...अखबारों में भी देखा है कि फिल्म मेकर नंदिता दास की बहुत तारीफ़ हो रही है ...उन के काम के बारे में तो कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने जैसा है...1947 Earth फिल्म किसे याद नहीं होगी, और उन के बेहतरीन काम की बेइंतहा तारीफ़ हुई ....मैं उन की सभी फिल्में देखता हूं ...और खास कर के एक फिल्म आई थी ...रामचंद पाकिस्तानी ....क्या गज़ब फिल्म थी ...मानवीय संवेदनाओं से ओत-प्रोत यह फिल्म किसी को भी झकझोर के रख सकती है।


बहरहाल, मंटो फिल्म की बात कर रहे थे ...नवाज़ुद्दीन साहब का काम, रसिका दुग्गल जी की अदाकारी ...जबरदस्त एक्टिंग की है सब किरदारों ने ...लेकिन, नहीं, फिल्म देखते लगता ही नहीं कि कलाकार एक्टिंग कर रहे हैं, सब कुछ इतना यथार्थ लगता है....जिस के लिए मंटो साहब जाने जाते हैं।

इस फिल्म के संवाद हमें सोचने के लिए मजबूर करते हैं....कुछ संवाद तो मैंने सुने और मुझे ऐसे याद हो गये कि मैंने उन्हें अपनी डॉयरी में नोट कर लिया ... आप से शेयर कर रहा हूं...


इस तरह की फ़िल्म हम तक पहुंचाने के लिए नंदिता दास का बहुत शुक्रिया ...मंटो साहब जैसे लोगों के काम की जगह जगह चर्चा होनी चाहिए ...उन के विचार आज भी उतने ही मौजू हैं जितने उस समय थे ...

बस, अभी इस पोस्ट को बंद करता हूं ...इस गुज़ारिश के साथ कि इस फिल्म को थियेटर में जा कर देखिए... मेरी सिफ़ारिश ही समझ लीजिए...क्योंकि मैं चाहता हूं कि आप भी इस अज़ीम शख्शियत के मुख्तलिफ़ पहलुओं से वाकिफ़ हो पाएं...

और रही मेरी बात, मैं तो इस फिल्म को एक बार फ़िर देख कर आऊंगा ....और हां, मंटो साहब को फिर से पढूंगा...और समझूंगा भी ....इस शख्शियत की याद को सादर नमन !!




शनिवार, 11 अगस्त 2018

परवाज़ सलामत रहे तेरी, ए दोस्त

आज सुबह ११ बजे के करीब मैं एक मरीज़ का चेक-अप कर रहा था...इतने में मेरे कमरे के बाहर पंक्षियों की तेज़ तेज़ आवाज़ें आईं...इस तरह की आवाज़ें अकसर तभी सुनती हैं जब कोई पंक्षी किसी मुश्किल में फंस जाता है ...

कमरे के परदे हटे रहते हैं वैसे भी ..खिड़कियां बंद रहती हैं ए.सी की वजह से ...और बाहर का नज़ारा अच्छा है, दूर बड़े बड़े पेड़ दिखते हैं...खुला आकाश दिखता था ..इसलिए अपनी तुच्छता का अहसास बना रहता है ...

परिंदा इस काली तार में उलझ कर उल्टा लटक गया था
बहरहाल, मेरे अटैंडेंट सुरेश ने झट से खिड़की खोल कर बाहर देखा तो एक परिंदा इस तार से उल्टा लटका हुआ था .. दरअसल हुआ यूं कि परिंदा इस तार पर आ कर जैसे ही बैठा होगा (यह बिजली की नहीं, टैलीफोन की तार थी)...उस के पैर पतंग वाले मांजे में अटक गये ...वह बेचारा क्या कोशिश करता उस जाल से अपने पैर को निकालने की । बस, कुछ ही पलों बाद वह उसी मांज के साथ उसी तार के साथ बिल्कुल उल्टा लटक गया...और लगा चीखने....

इसी आवाज़ को सुनते ही कुछ और परिंदे आ गये होंगे इसी जगह के ऊपर और वे भी चीखने-चिल्लाने लगे होंगे ...जो आवाज़ हम लोगों ने सुनीं..

इत्तेफ़ाक देखिए कि इस कमरे की खिड़की से चंद कदम की दूरी पर सरकारी ऐंबुलेंस खड़ी रहती है ...उस के ड्राईवर ने परिंदे पर आई मुसीबत को देखा तो झट से पंक्षी को सहारा देने के लिए लपका ...इतने में मेरे अटैंडेंट ने भी खिड़की खोल दी थी...उस ऐंबुलैंस वाले ने उस परिंदे को तब तक आराम से सहारा देने लिए पकड़ लिया था ...शायद वह उस डोर को जोर से खींच के उसे  तार से छुड़वा लेता .. लेकिन मेरे अटैंडेंट ने तब तक कमांडिंग ऑफीसर की कमान संभाल ली थी ...उसने उस ऐम्बुलेंस ड्राईवर को कहा...नहीं, नहीं, ऐसे नहीं खींचना, यह चाईनीज़ मांजा होता है, इस का पैर कट जायेगा....मैं तुम्हें ब्लेड देता हूं...

इतने में वह ड्राईवर कहने लगा कि यह तो काट रहा है ....फिर कमांड की तरफ़ से उसे मशविरा मिला ...देखो, इस को ऐसे गर्दन के पास से मत पकड़ो, इसीलिए यह काट रहा है,  पीछे से पकड़ो। उस ड्राईवर ने वैसा ही किया और पंक्षी ने काटना बंद कर दिया...

इतने में सुरेश ने ब्लेड़ निकाल लिया था ...जिसे इस्तेमाल कर के उस मांजे को काटा गया जिस के साथ वह तार से लटक गया था ...चलिए, कुछ काम हुआ तो ...

अब आगे का किस्सा यह था कि उस परिंदे के पैरों के इर्द-गिर्द मांजा इतनी पेचीदगी से कसा गया था कि उसे छुड़वाना भी एक चैलेंज था ...ऐंबुलैंस वाला प्राणीयों पर दया तो करने वाला था ...लेकिन शायद थोड़ी जल्दी में था....वह उस उलझे हुए मांजे को खींच कर परिंदे के पैर से अलग करने लगा ...फिर खिड़की के इस तरफ़ से उसे हाई-कमान का फ़रमान मिला ....न भाई न, ऐसे खींचना मत, उस का पैर कट जायेगा..।

अब तक परिंदा शांत हो चुका था ... ड्राईवर साहब ने उस परिंदे को बडे़ प्यार से पकड़ रखा था ...मैं और सुरेश उस मांजे को उस से पैरों से अलग करने में लगे हुए थे ...कुछ ज़्यादा ही कसाव था उस मांजे का ...और उस के पैर तो नाज़ुक थे ही ...इतने में अपने कमांडिंग आफीसर ने कहा कि ठहरो, मैं कैंची लाता हूं...। और वह झट से कैंची ले आया ...कैंची से कुछ उसने धागे काटे, कुछ मैंने काटे...(कैंची सर्जीकल कैंची थी, बारीक वाली) ...

लो जी, कट गये धागे सारे ... इतने में मैं एक गिलास में पानी लाया और ग्रिल के अंदर से ही गिलास बाहर किया और परिंदे की चोंच उस में डुबो दी गई कि परवाज़ भरने से पहले दो बूंद पानी पी ले ...हम लोग खुद भी तो ऐसे मौकों पर बदहवास हो जाते हैं ...बस, अब उस से विदा लेने का समय था .... यह तसल्ली तो थी कि उस के पैर सही सलामत हैं ...देखते हैं उड़ान भरता है तो ठीक है, नहीं तो ध्यान रखेंगे इस का ....

ड्राईवर साहब ने उस जैसे ही हवा में छोड़ा देखते ही देखते वह हवा से बातें करने लगा ....और पलक झपकते ही इन पेड़ों के पास पहुंच गया ... और जैसे ही उसने उड़ान भरी उस के साथी जो इधऱ उधर उस का इंतज़ार कर रहे थे वह भी उस की आज़ादी में शरीक हो गये ...

परिंदे की उड़ान के बाद ली यह तस्वीर ..यह उस परिंदे की नहीं है 
उस की परवाज़ देख कर इतनी खुशी हुई कि खुशी से आंखें नम हो गईं..

बाद में ध्यान आया कि कैसे लोग इस तरह की नन्ही जान को अपना निवाला बना लेते हैं....धार्मिक-वार्मिक बात नहीं कर रहा हूं....न ही करता हूं...वे फ़साद की जड़ होती हैं...एक विचार आया मन में कि कैसे इन का गुलेल से, गोली से शिकार किया जाता है या जाल में फंसाया जाता था ...

अब ध्यान आ रहा है कि एक परिंदे की चोट देख कर हम सब इक्ट्ठा हो गये ...अगर हम सब लोग इतने ही दयालु-कृपालु हैं तो फिर समाज में इतनी मार-काट, लूट-पाट, काट-फाड़ कौन कर रहा है....किसी आदमी को काटने-गिराने में हम लोगों को क्या रती भर दया नहीं आती...क्या हो जाता है हम लोगों को जब हम भीड़ का हिस्सा बन कर बस्तियां जला देते हैं, लोगों के गले में जलते टायर डाल देते हैं ... भीड़-तंत्र का हिस्सा बनना हमें बंद करना होगा, वरना यहां कुछ नहीं बचेगा... बस, धधकते तंदूरों पर सियासी लच्छेदार परांठे लगते रहेंगे ....काश, हम सब सुधर जाएं....

बहरहाल, कल रविवार है ...परसों परिंदे के उन दोनों रक्षकों को अच्छी पार्टी करवाऊंगा ... मुझे पता है ऐसे नेक लोगों को इन सब की कुछ परवाह नहीं होती लेकिन मेरा भी कुछ फ़र्ज़ तो बनता है क्योंकि परिंदा फंसा तो हमारे आंगन में ही था ..




चलती है लहरा के पवन कि सांस सभी की चलती रहे ....



शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

जब तोप मुकाबिल हो तो ...

सातवीं-आठवीं कक्षा के दौरान एक दिन बैठा मैं  समाचार-पत्र पर निबंध लिख रहा था ..मेरे पिता जी साथ ही बैठे हुए थे...पहले पेरेन्ट्स के पास बच्चों के लिए समय भी होता था...उन्होंने कहा कि शुरू में यह भी लिखो ...

निकालो न कमानों को, न तलवार निकालो, 
जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो..

अगले दिन हिंदी के हमारे उस्ताद  कृष्ण लाल तलवाड़ जी बहुत खुश हुए वह निबंध को देख कर...

उस निबंध में यह भी लिखा था कि किस तरह से हर तरह की ख़बर के लिए अखबार में जगह सुरक्षित होती है ...विकास कार्य, शिक्षा संबंधी, सेहत, वैवाहिक विज्ञापन, अन्य विज्ञापन, खेल-कूद, राजनीतिक खबरें, बवाल, ज़ुर्म आदि। जी हां, होती हैं अभी भी ये सब ख़बरें लेकिन पता नहीं क्यों लगता है कि हर पन्ना खून और नफ़रत से लथपथ है ..


हमेशा की तरह अभी मैंने अखबार उठाया तो मुझे हर रोज़ की तरह यही लगा कि आज कल की अखबारें हैं या क्राइम-रिपोर्टर ...हर पन्ना खून, खौफ, ज़ुर्म से रंगा हुआ...






ऐसी ऐसी खबरें देखने-सुनने को मिल रही हैं जिन की कल्पना करना भी दुश्वार होता है - ज़ुर्म के नये नये तौर तरीके!
अखबारों का इस में .कोई दोष नहीं है...मीडिया तो अपने समय का आईना होता है, वह वही दिखाता है जो समाज में उस समय घट रहा होता है..

मुझे याद है बचपन में हम लोग अखबार में कोई ज़ुर्म की खबर पढ़ लेते थे तो एक तरह से सहम जाया करते थे...लेकिन अब तो कुछ असर ही नहीं होता ..आए दिन कोई न कोई बुज़ुर्ग आदमी या औरत, या दोनों या कोई भी अकेली महिला , यहां तक की पुरूष ..ज़ुर्म की चपेट में आ ही जाता है...



बु़ुज़ुर्ग लोगों की भी आफ़त है आज के दौर में ...घर वालों से बचे तो बाहर वालों की जद में आ  जाते हैं, और  उन से भी बच गए तो कमबख्त मधुमक्खियों ने ही सफाया कर दिया ...
घपलेबाजी की ख़बरें अब नीरस लगती हैं!


औरतों की सोने की चेन झपट ली जाती है ..हम दोष देते हैं कि उन्हें पहन कर निकलना ही नहीं चाहिए था..लेकिन अगर कोई महिला अपने ही घर-आंगन में रात पौने आठ बजे तुलसी पर दिया जला कर मुड़े और उसे वहीं पर चार लोग आ कर धर-दबोचें तो इसे आप क्या कहेंगे! लूटपाट हुई ...और उस के ७४ साल के पति को जब गोली मारने लगे तो वह गिड़गिड़ाई कि सब कुछ लूट ले जाओ, लेकिन इन्हें मत मारो....बदमाशों ने वह बात मान ली ..जाते समय महिला से माफ़ी भी मांग कर गये कि लूटपाट हम मजबूरी में कर रहे हैं...



 कल नेट पर कहीं पढ़ रहा था कि एक बुज़ुर्ग महिला का शव कईं महीनों तक घर में छिपाए रखा ताकि उस को मिलने वाली पेंशन चलती रहे...अब बैंकों वाले जीवन-प्रमाण पत्र मांगते हैं तो लोगों को उस से भी शिकायत है ..

अभी तो हम लोग यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस तरह के डाटा लीक मामलों का हम पर असर क्या पड़ेगा, अभी तो हम लोग पहले हिंदु-मुस्लिम मामलों को सुलटा लें, जाति-पाति की नोंक-झोंक से फ़ारिग हो जाएं, फिर इन सब मामलों को समझने की कोशिश करेंगे...अभी हिंदु-मुस्लिम के मसलों में उलझते रहने का समय है!!

हम लोग वाट्सएप पर देखते हैं कि लोग बड़ा मज़ाक उड़ाते हैं लोगों का कि अब वे घर के बाहर तखती टांग देते हैं कि कुत्तों से सावधान....लेकिन सोचने वाली बात यह है कि ऐसा न करें तो आखिर वे करें क्या, अब तो दिन-दिहाड़े लोग बेखौफ़ लूटपाट करने लगे हैं.. हम बड़े खतरनाक समय में जी रहे हैं...कोई भी कहीं भी सुरक्षित नहीं है ...

यह सिर्फ़ लखनऊ का ही हाल नहीं है ...मुझे लगता है कि देश के किसी भी शहर का अखबार अगर हम देखेंगे तो उस में यही कुछ बिखरा पाएंगे ....इन जुर्म करने वालों को इस बात से क्या लेना कि किस की सरकार है या कानूनी व्यवस्था कैसी है .
पेशेवर बदमाश तो बदमाश, हम लोगों के अपने भी तेवर चढ़े हुए रहते हैं ..छोटी छोटी बातों पर हम देखते हैं कि हम लोग तनाव, अवसाद, क्रोध के चलते दूसरों की जान लेने पर उतारू हो जाते हैं ..अगर नहीं ले पाते तो अपनी जान लेने से भी नहीं कतराते।

इतनी बड़ी बड़ी घटनाएं हो रही हैं, ऐसे में टप्पेबाजी कितना टु्च्चा काम लगता है!



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यह मुद्दा बडा़ संजीदा है, हमें मिल जुल कर इस का हल ढूंढना ही होगा..
पच्चीस साल पहले जिस सत्संग में जाता था वहां पर हमें अखबार पढ़ने के लिए मना किया करते थे कि क्या तुम लोग सुबह सुबह अपने दिमाग में सारा कचड़ा भर लेते हो...कुछ समय के लिए अखबार पढ़ना छोड़ भी दिया था ..लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह तो कोई हल न हुआ ...और हम जैसे लोग जो कंटेंट-एनेलेसिस करते हैं, वे अखबार पढ़ेंगे तो ही दीन-दुनिया का पता चलेगा वरना तो दो दिन अगर अखबार नहीं देखते तो कूप-मंडूक जैसी हालत होने लगती है .. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि सुबह उठते ही अखबार पढ़ने का वक्त गल्त है ...वह समय अपने आप के लिए रखना चाहिए..कोशिश करूंगा इस आदत से छुटकारा पाने की..

हर तरफ गुस्सा, विरोध, ताकत का इस्तेमाल, लूट-पाट, चोरी-डाका, आगज़नी, जालसाज़ी, हत्याएं, हंगामे....सुबह उठते ही यह सब अपने अंदर ठूंस लेने से शरीर की बेचारी हारमोन प्रणाली का क्या होता होगा! -इतना सब कुछ ग्रहण करने के बाद, इन सब की ओव्हर-डोज़ के बाद यह कैसे सही रह सकती है ...आप को क्या लगता है?



कुछ साल पहले अमेरिकी स्कूलों में ही यह सब होता था!



मुझे तो वह संपादक वाला और उस के साथ वाला पन्ना ही भाता है ..लेकिन वही मेरे से अकसर छूट जाता था!


इस तरह की जुर्म की जुल्मी ख़बरें देखने के बाद अखबार के आखिर पन्ने पर यह ख़बर भी दिख गई...जैसे वह समाज को कोई सबक सिखा रही हो कि अभी भी वक्त है, सुधर जाओ...

वैसे ये सारी खबरें आज की अखबार की ही हैं...और अगर किसी खबर को तवसील से पढ़ने का मन कर ही जाए, तो उस तस्वीर पर क्लिक कर के उसे आप पढ़ सकते हैं...